है मेरी यह आरज़ू
बैठी हो तू रूबरू
कर रहे हम गुफ्तगू
नज़रों में हो तू ही तू,
आरज़ू, रूबरू, गुफ्तगू, तू ही तू
है मेरी यह आरज़ू
ज़िंदगी के मोड पर,
बोलो मिलोगी छोड़कर,
दिल की डोरी, माँ की लोरी,
रिश्ते-नाते तोड़ कर
है मेरी यह आरज़ू
साथ में लेंगे कदम
साथ में झेलेंगे गम
चोट खाएँगे, कराहेंगे,
लगाएंगे मरहम
है मेरी यह आरज़ू
चार पल की ज़िंदगानी
पाएगी अपनी निशानी
गोद में जो, सो रही हो,
नन्ही सी परियों की रानी
है मेरी यह आरज़ू
मौत का होगा जो डर,
कांधे पे तेरे रख़ के सर
मुसकुराते, गुनगुनाते,
जाएँगे तब हम उधर
है मेरी यह आरज़ू
– निहित कौल ‘गर्द’
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